भारत में होमियोपैथी का आरम्भ
अपने जन्म (सन् 1796) के 14 वर्ष के बाद ही होमियोपैथी सन् 1810 में भारत आ चुकी थी। भारत में होमियोपैथी के आने की सही तारीख बताना तो बहुत मुश्किल है किन्तु इसकी शुरुआत उस समय हुई थी, जब सन् 1810 में कुछ अंग्रेज़ी चिकित्सकों और मिशनरियों ने स्थानीय निवासियों के बीच होमियोपैथिक दवाओं का वितरण करना आरम्भ किया था। वर्ष 1810 के आसपास ही एक जर्मन चिकित्सक और भूविज्ञानी अपने अधिकारियों के साथ कुछ भूवैज्ञानिक जांच के लिए भारत आए थे। उन्होंने कलकत्ता में अपना आधार स्थापित किया, जहां उन्होंने अपने बीमार श्रमिकों और उस इलाके के लोगों के उपचार के लिए होमियोपैथिक दवाएं मुफ्त में वितरित कीं। उसी समय, लंदन मिशनरी सोसाइटी के एक डॉ. मुलेंस, कलकत्ता के भवानीपुर के लोगों के बीच होमियोपैथिक दवाएं मुफ्त में वितरित करने के लिए जाने जाते थे।
शुरुआत में, इस प्रणाली का अभ्यास केवल बंगाल के कुछ गढ़मान्य नागरिकों और सैन्य सेवाओं में कार्यरत कुछ नौसिखियों द्वारा किया जाता था। बाद में महामारियों के दौरान इसे बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाने लगा।
डॉ. जॉन मार्टिन होनिगबर्गर और महाराजा रणजीत सिंह का उपचार
होमियोपैथी ने भारत में सन् 1839 में उस समय अपनी जड़ पकड़ी, जब डॉ. जॉन मार्टिन होनिगबर्गर ने स्वर-तंत्रों के पक्षाघात तथा पैरों की सूजन (oedema of legs and paralysis of vocal cords) के लिए लाहौर में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह का सफलतापूर्वक उपचार किया था।
डॉ. जॉन मार्टिन होनिगबर्गर डॉ. सैमुअल हैनिमन के शिष्य थे। उन्होंने 1835 में पैरिस में स्वयं डॉ. सैमुअल हैनिमन से होमियोपैथी सीखी थी। डॉ. होनिगबर्गर पहली बार 1810 के आसपास भारत आये थे। सन् 1839 में जब उन्होंने दूसरी बार भारत का दौरा किया तब उन्हें पंजाब के तत्कालीन शासक महाराजा रणजीत सिंह, का उपचार करने के लिए लाहौर में आमंत्रित किया गया था। महाराजा ने एक शर्त रखी कि डॉ. होनिगबर्गर को महाराजा की औषधि का निर्माण उनके सामने दरबार में ही करना होगा तब डॉ. होनिगबर्गर ने डलकामारा नामक औषधि का निर्माण दरबार में ही महाराजा के सामने वाइन में किया था। महाराजा परिणामों से बहुत खुश हुए और उन्होंने डॉ. होनिगबर्गर को भारत में होमियोपैथिक उपचार जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया।
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इतना ही नहीं डॉ. होनिगबर्गर ने महाराजा रणजीत सिंह के पसंदीदा घोड़े के पैर के अलसर का भी सफलतापूर्वक उपचार गन-पाउडर नामक होमियोपैथिक औषधि से किया था जिससे महाराजा उनसे बहुत प्रभावित हुए। महाराजा ने उन्हें एक बारूद (गन-पाउडर) निर्माण कारखाने और एक बंदूक स्टॉक प्रतिष्ठान का प्रबंधन करने की पेशकश की और उन्हें लाहौर के दरबार का चिकित्सक नियुक्त कर लिया। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद में डॉ. होनिगबर्गर कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में बस गये और हैजा-चिकित्सक के रूप में लोकप्रिय हो गये। उन्होंने 1860 तक कलकत्ता में होमियोपैथी का अभ्यास किया। डॉ. होनिगबर्गर ने "Thirty-five Years In The East: Adventures, Discoveries, Etc.", नामक एक पुस्तक लिखी थी जो बहुत ही लोकप्रिय हुई तथा जिसमें उन्होंने भारत में हुए अपने अनुभवों को साझा किया है।
भारतीयों के बीच लोकप्रिय होती होमियोपैथी
होमियोपैथी से प्रभावित होकर एक सेवानिवृत्त चिकित्सा अधिकारी सर्जन सैमुअल ब्रूकिंग, ने सन् 1847 में दक्षिण भारत के तंजौर में एक होमियोपैथिक अस्पताल स्थापित किया था। दो सरकारी चिकित्सा अधिकारी डॉ. कूपर और डॉ. जे. रदरफोर्ड रसेल, एक सैन्य पेंशनभोगी - एच. रायपर, तथा कैप्टन मे और कलकत्ता के कुछ अन्य उत्साही लोगों ने बंगाल की जनता के बीच होमियोपैथी को लोकप्रिय बनाने में अहम् भूमिका निभाई थी। वहीं एक फ्रांसीसी चिकित्सक डॉ. सी.जे. टोनरे, एम.डी. द्वारा प्रदान की गई सेवाएँ भी सराहनीय एवं महत्वपूर्ण थीं। उन्होंने वर्ष 1851 में थाइसिस पल्मोनैलिस (Lung TB) की एक मूल्यवान होमियोपैथिक दवा "अकैल्फा इंडिका " की प्रूविंग की थी। वे कलकत्ता शहर के पहले स्वास्थ्य अधिकारी थे और बाद में उन्होंने एक होमियोपैथिक अस्पताल की स्थापना की थी।
इस प्रकार धीरे-धीरे पूरे भारत में होमियोपैथी का प्रसार जारी रहा। सम्मानित व्यक्तियों, बुद्धिजीवियों और अन्य दिग्गजों ने डॉ. हैनिमन के इस नए चिकित्सा विज्ञान का समर्थन करना जारी रखा। भारतवासियों ने बहुत जल्द होमियोपैथी को स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्होंने पाया कि होमियोपैथी का मूल सिद्धांत - ‘लॉ ऑफ़ सिमिलिया’ (Law of Similia - Similia Similibus Curentur), जिसे जर्मनी के डॉ. सैमुअल हैनिमन ने हाल ही में खोजा था, वास्तव में हमारी प्राचीन चिकित्सा का हिस्सा था। प्राचीन काल से ही हमारे ऋषि-मुनियों को प्रकृति में निहित इस ‘समानता के सिद्धांत’ का रहस्य उद्घाटित था। 'समः समं, शमयति ' अर्थात समान से समान की चिकित्सा या फिर 'विषस्य विषमौषधम् ' यानि विष ही विष की औषधि है के सिद्धांत हमें सदियों से ज्ञात थे।
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सदियों से हम भारतीय भगवान शिवशंकर को विषैले पदार्थ जैसे भांग, धतूरा, आक, बेलपत्र आदि अर्पण करते आ रहे हैं ताकि समुद्रमंथन के दौरान जो उन्होंने हलाहल विष को अपने कंठ में धारण किया था, उस विष के प्रभाव को मिटाया जा सके। क्या यह होमियोपैथी नहीं है? भारतीयों ने होमियोपैथी के दर्शन और सिद्धांतों में अपनी आस्था और संस्कृति की झलक देखी। इसी कारण इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित सरल, सुलभ और सस्ती चिकित्सा पद्धति - होमियोपैथी को अपनाने में हम भारतीयों ने ज़रा भी देर नहीं की।
भारतीय होमियोपैथी के जनक - बाबू राजेंद्र लाल दत्ता
भारतीय होमियोपैथी का ज़िक्र हो और बाबू राजेंद्र लाल दत्ता (1818-1889) का नाम न आये, यह तो असंभव ही होगा। उन्होंने भारत में होमियोपैथी के प्रचार-प्रसार में इतनी अहम भूमिका निभाई है कि उन्हें भारतीय होमियोपैथी का जनक कहा जाता है।
डॉ. राजेंद्र लाल दत्ता (जिन्हें सभी आदर से बाबू राजेंद्र लाल कहा करते थे) का जन्म सन् 1818 में वेलिंगटन स्क्वायर, कलकत्ता के प्रसिद्ध दत्त परिवार में हुआ था।
सन् 1861 में, निचले बंगाल में मलेरिया बुखार की एक भयानक महामारी फैली हुई थी और यह वह समय था जब महान परोपकारी, बाबू राजेंद्र लाल दत्ता, ने वास्तव में होमियोपैथी की नींव रखी और आश्चर्यजनक परिणामों के साथ होमियोपैथी के द्वारा लोगों का उपचार किया।
बाबू राजेंद्र लाल दत्ता जी ने सन् 1864 में कोलकाता में पहली चैरिटेबल होमियोपैथिक डिस्पेंसरी खोली। उन्होंने ही पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा सर राधाकांत देब बहादुर, जैसी महान हस्तियों तथा डॉ. महेंद्र लाल सरकार जैसे अन्य दिग्गजों का उपचार होमियोपैथी के द्वारा करके होमियोपैथी को एक सम्मानजनक स्तर पर पहुँचाने का भागीरथी कार्य किया था। बाबू राजेंद्र लाल दत्ता जी ने अनेक एलोपैथिक चिकित्सकों को होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति से अवगत कराया और उनका रूपांतरण होमियोपैथिक चिकित्सा की ओर किया। डॉ महेंद्र लाल सरकार का नाम इस सूची में सबसे ऊपर आता है।
बाबू राजेंद्र लाल दत्ता का मानना था कि होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति को आम जनता के लिए उपलब्ध होना चाहिए ताकि गरीब, असहाय, बेबस लोगों का कम खर्च में उपचार किया जा सके। होमियोपैथी के क्षेत्र में उनके निस्वार्थ योगदान के लिए ही डॉ. राजेंद्र लाल दत्ता को भारतीय होमियोपैथी का जनक कहा जाता है। जब 5 जून, 1889 को 71 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ तबतक उनके प्रयासों से बंगाल में होमियोपैथी एक दृढ़, व्यापक और प्रतिष्ठित स्तर पर स्थापित हो चुकी थी।
डॉ. महेंद्रलाल सरकार और इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस (IACS)
डॉ. एम.एल. सरकार (1833-1904), न केवल अपने समय के महानतम होमियोपैथ थे, बल्कि एक महान वैज्ञानिक भी थे। उनका जन्म 2 नवंबर, 1833 को हावड़ा के पास पाइकपारा में हुआ था। अपने समय के एक सफल ख्यातिप्राप्त एलोपैथिक चिकित्सक होने के बावजूद उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह से होमियोपैथी के सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। वे कलकत्ता मेडिकल कॉलेज के दूसरे पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर थे। यद्यपि उन्होंने एलोपैथी की शिक्षा ली थी, उन्होंने होमियोपैथी को अपनाया और उसी के माध्यम से चिकित्सा की। उनका रूपांतरण होमियोपैथी चिकित्सा की ओर करने का श्रेय बाबू राजेंद्र लाल दत्ता जी को ही जाता है।
शुरूआत में, डॉ. सरकार होमियोपैथी के कड़े आलोचक एवं धुर विरोधी थे। ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन की बंगाल शाखा के उद्घाटन समारोह में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने होमियोपैथिक प्रणाली की जमकर निंदा की तथा इसे अवैज्ञानिक मानकर सिरे से नकार दिया। वह इस एसोसिएशन के सचिव थे और बाद में उपाध्यक्ष बने।
किन्तु बाबू राजेंद्र लाल दत्ता से मिलने के बाद होमियोपैथी के प्रति उनका नज़रिया इस तरह बदला कि अपनी इतनी उच्च डिग्री के बावजूद उन्होंने एलोपैथी को हमेशा के लिए छोड़ देने की घोषणा की और जीवनभर होमियोपैथी से जनमानस की सेवा करते रहे। दरअसल जब डॉ. सरकार ने देखा कि बाबू राजेंद्र लाल दत्ता इनके द्वारा असाध्य बताए गए रोगियों को न सिर्फ़ आराम पहुँचा रहे हैं बल्कि कुछ को तो वह अपनी दवा से पूरी तरह से स्वस्थ भी कर दे रहे हैं तब वे इसके प्रति आकर्षित हुए। डॉ. सरकार ऐसे मामलों में होमियोपैथिक दवाओं की प्रभावशीलता से आश्वस्त और आश्चर्यचकित थे जहां एलोपैथिक दवाएं कुछ नहीं कर सकती थीं। हैनिमन की प्रणाली की सुंदरता से आश्वस्त होकर, उन्होंने संपूर्ण होमियोपैथिक साहित्य का अध्ययन किया। वे विलियम मॉर्गन की “द फिलॉसफी ऑफ होमियोपैथी” को पढ़कर बहुत प्रभावित हुए थे।
16 फरवरी 1867 को ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन की बंगाल शाखा की कलकत्ता में आयोजित एक बैठक में उन्होंने एक पेपर प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने होमियोपैथी को उस समय की "पश्चिमी चिकित्सा" से बेहतर घोषित किया और खुले तौर पर होमियोपैथी में परिवर्तित होने की घोषणा कर दी। उनके पेपर का शीर्षक था "चिकित्सा विज्ञान में कथित अनिश्चितता और बीमारी और उनके उपचार एजेंटों के बीच संबंध पर"। इस तरह डॉ. महेंद्रलाल सरकार होमियोपैथी में परिवर्तित होने वाले पहले भारतीय चिकित्सक बने। बाद में उनके नेतृत्व में कई एलोपैथिक डॉक्टरों ने भी होमियोपैथिक प्रैक्टिस शुरू की।
किन्तु होमियोपैथी में रूपांतरण से इस महान व्यक्तित्व को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कुछ एलोपैथिक चिकित्सकों ने उनके इस निर्णय के लिए उनका मजाक उड़ाया तो कुछ ने उनसे अपना निर्णय बदलने का आग्रह किया, लेकिन वे सभी डॉ. सरकार का होमियोपैथी के प्रति विश्वास तोड़ने में असफल रहे। उनकी इस सार्वजनिक घोषणा के परिणामस्वरूप, उन्हें ब्रिटिश डॉक्टरों द्वारा बहिष्कृत कर दिया गया और कुछ समय के लिए उनकी प्रैक्टिस पर भी रोक लगा दी गयी। हालाँकि, जल्द ही उन्हें उनका अधिकार प्राप्त हुआ और उन्होंने पुनः अपनी होमियोपैथी की प्रैक्टिस जारी की। उन्होंने उस युग के कई महान व्यक्तियों का उपचार होमियोपैथी से किया था, जैसे- बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, रामकृष्ण परमहंस, त्रिपुरा के महाराज आदि।
वर्ष 1878 में, उन्हें चिकित्सा संकाय में स्थानांतरित कर दिया गया। एलोपैथिक चिकित्सकों के प्रभुत्व वाले संकाय ने इस पर आपत्ति जताई और डॉ. सरकार का नाम सूची से हटाने का प्रस्ताव पारित किया क्योंकि वे लोग होमियोपैथी को एक अवैज्ञानिक चिकित्सा प्रणाली मानते थे। डॉ. सरकार ने अपनी बुद्धिमत्ता से होमियोपैथी के सिद्धांतों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से इस प्रकार प्रस्तुत किया कि वह प्राधिकारियों को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे कि होमियोपैथी ही एकमात्र वैज्ञानिक चिकित्सा प्रणाली है। लेकिन एलोपैथिक चिकित्सकों और साथी संकाय सदस्यों के अतार्किक और हठधर्मितापूर्ण व्यवहार के कारण डॉ. सरकार ने अंततः अपना इस्तीफा दे दिया।
अपने ऊपर लगे आक्षेपों को मिटाने तथा होमियोपैथी के वैज्ञानिक पक्ष को लोगों के सामने प्रकट करने के उद्देश्य से उन्होंने वर्ष 1868 में प्रथम होमियोपैथिक पत्रिका “कलकत्ता जर्नल ऑफ मेडिसिन” का संपादन किया।
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महेंद्रलाल एक देशभक्त और राष्ट्रवादी थे तथा उनके मन में विज्ञान के प्रति सम्मान था। वे जानते थे कि यदि होमियोपैथी को एक सफल चिकित्सा पद्धति के रूप में स्थापित करना है तो इसके लिए इसमें बहुत अनुसंधान की आवश्यकता पड़ेगी। अतः उनका सपना "रॉयल सोसाइटी ऑफ लंदन" के समान एक शोध संस्थान स्थापित करना था जहां भारतीय भी बुनियादी विज्ञान में शोध कर सकें। महेंद्रलाल सरकार के लिए विज्ञान राष्ट्रवाद का एक प्रतिबिंब था। उन्होंने महसूस किया कि वैज्ञानिक प्रगति के बिना राजनैतिक राष्ट्रवाद का कोई अर्थ नहीं है और इसीलिए उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत को ब्रिटिश वर्चस्व से दूर अपने स्वयं के वैज्ञानिक ज्ञान की आवश्यकता है। इसी कारण उन्होंने एक ऐसे संघ की योजना बनाई जिसे राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए वैज्ञानिकों का एक समूह तैयार करने के उद्देश्य से मूल भारतीयों द्वारा वित्त पोषित, संचालित और प्रबंधित किया जाएगा। उन्होंने दृष्टिकोण पत्र तैयार किये और देश के धनी नागरिकों से इस परियोजना में योगदान देने का आग्रह किया। 19वीं सदी में जब अंग्रेज, वेदों की इस पावन भूमि पर पश्चिमी विज्ञान थोप रहे थे तब किसी भारतीय द्वारा इस प्रकार वैज्ञानिक अध्ययन का प्रचारक होना दुर्लभ एवं क्रांतिकारी बात थी। आखिर डॉ. सरकार की मेहनत रंग लाई जब 29 जुलाई, 1876 को इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस (IACS) की स्थापना के साथ, भारत के वैज्ञानिक समुदाय में एक नए युग की शुरुआत हुई। IACS आज भी कोलकाता में स्थित एक प्रमुख वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान है जो एशिया का सबसे पुराना वैज्ञानिक संस्थान भी है। नोबेल पुरुस्कार विजेता डॉ. सी.वी. रमन भी अपने स्वतंत्र शोध को आगे बढ़ाने के लिए अपने खाली समय में डॉ. सरकार के इस संस्थान में जाया करते थे। इसी दौरान उन्होंने 'रमन इफ़ेक्ट' की ऐतिहासिक खोज की थी जिसके लिए उन्हें भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में नोबल पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था। डॉ. रमन ने अपने नोबेल व्याख्यान में डॉ. सरकार को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए उनके प्रति अपनी कृतज्ञता दर्ज़ की है। उन्होंने कहा था कि इस संस्थान ने उनकी खोज में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
उनके जीवन की कठिनाइयों के बावजूद डॉ. सरकार ने धीरे-धीरे खुद को एक कुशल होमियोपैथ के रूप में स्थापित किया और इस तरह वे कलकत्ता के साथ-साथ भारत में एक अग्रणी होमियोपैथिक चिकित्सक बन गए तथा एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक व्यक्ति के रूप में पहचाने जाने लगे।
कलकत्ता होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेज की स्थापना
डॉ. प्रताप चन्द्र मजूमदार 1878 में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से डिग्री लेने के बाद अमेरिका से एम.डी. की मानद उपाधि प्राप्त करके भारत लौटे। अपने ससुर डॉ. बी.एल.भादुड़ी द्वारा होमियोपैथी में परिवर्तित होने के बाद, उन्होंने डॉ. एल. साल्ज़र के योग्य सहायक के रूप में हैनिमैनियन होमियोपैथी पर अपनी पकड़ मजबूत की। लंबे समय तक उन्होंने स्वदेशी दवाओं की प्रूविंग की और अंग्रेजी और बंगाली में बड़ी संख्या में किताबें लिखीं। उन्होंने भारत की दूसरी सबसे पुरानी होमियोपैथिक पत्रिका इंडियन होमियोपैथिक रिव्यू का संपादन किया। उन्होंने जून 1891 में शिकागो में आयोजित चौथे अंतर्राष्ट्रीय होमियोपैथिक कांग्रेस में भाग लिया। भारत में होमियोपैथी को तब बल मिला जब डॉ. पी. सी. मजूमदार ने वर्ष 1881 में डॉ. डी.एन. रॉय सहित अनेक प्रसिद्ध चिकित्सकों के सहयोग से, प्रथम होमियोपैथिक कॉलेज - कलकत्ता होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेज की स्थापना की और अपनी मृत्यु (1922) तक इसे बनाए रखा। इस संस्था ने भारत में होमियोपैथी को लोकप्रिय बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई।
होमियोपैथिक फार्माकोपिया
होमियोपैथी न केवल बंगाल में लोकप्रिय हो रही थी, बल्कि इसकी खुशबू देश के अन्य हिस्सों में भी फैलने लगी थी। अगले कुछ ही वर्षों में, पूरे भारत में शौक़ीन होमियोपैथिक प्रैक्टीशनरों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है और उनमें से अधिकांश ने होमियोपैथी को मान्यता प्रदान करने के लिए सरकार से अनुरोध किया। डॉ. दीवान जय चंद, डॉ. लाहिड़ी, डॉ. बी.के. सरकार और अनेक अन्य चिकित्सकों ने एक व्यवसाय के रूप में होमियोपैथी स्थापित करने में व्यक्तिगत प्रयास किए। वे, केवल पश्चिम बंगाल में ही नहीं बल्कि पूरे देश में, होमियोपैथी की प्रगति के लिए अपने योगदान के लिए प्रसिद्द हैं। इनमें से ज़्यादातर एम.बी.बी.एस. थे जिन्होंने एलोपैथी को छोड़कर होमियोपैथी को खुले मंच से अपनाया था तथा इसके द्वारा मानवता के उत्थान के लिए समर्पित थे।
दक्षिण भारत में होमियोपैथी के प्रसार में फादर मुलर (1841-1910) की प्रमुख भूमिका रही है। जर्मन जेसुइट मिशनरी फादर ऑगस्टस मुलर ने 1880 में, मैंगलोर के कंकानाडी में धर्मार्थ औषधालय की स्थापना की जहाँ उन्होंने मुख्य रूप से लेप्रोसी के रोगियों का उपचार होमियोपैथी और एलॉपथी दोनों के माध्यम से किया। उन्हें उत्तम गुणवत्ता वाली होमियोपैथिक औषधियों के निर्माण में महारथ हासिल थी। यह फादर मुलर वही श्रीमान ऑगस्टस मुलर के पोते थे जो होमियोपैथी के जनक डॉ. सैमुअल हैनिमन के स्कूल शिक्षक थे। दक्षिण भारत के मैंगलोर में फादर मुलर इंस्टीटूशन्स आज भी एक प्रतिष्ठित नाम है जहाँ वर्ष 1985 से एक होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेज और होमियोपैथिक अस्पताल भी है।
होमियोपैथी की बढ़ती मांग के साथ ही होमियोपैथिक औषधियों की भी मांग बढ़ी और उनके गुणवत्ता नियंत्रण के लिए भी मानक तय करने की आवश्यकता आन पड़ी। होमियोपैथिक दवाएं मुख्य रूप से पौधों, जानवरों और खनिजों से तैयार की जाती हैं। इन औषधियों की गुणवत्ता नियंत्रण के लिए मानकों का निर्धारण करने के उद्देश्य से एक समिति गठित की गयी जिसे होमियोपैथिक फार्माकोपिया समिति कहा गया। होमियोपैथिक फार्माकोपिया समिति स्थापित करने का प्रस्ताव वर्ष 1956 में होमियोपैथिक सलाहकार समिति द्वारा शुरू किया गया था। भारत सरकार ने सितंबर 1962 में होमियोपैथिक फार्माकोपिया समिति का गठन किया था जिसकी अध्यक्षता डॉ. बी.के.सरकार ने की थी तथा जिसका मुख्य कार्य भारतीय होमियोपैथिक फार्माकोपिया को संकलित करना था।
भारतीय होमियोपैथिक फार्माकोपिया या होमियोपैथिक फार्माकोपिया ऑफ इंडिया (HPI) होमियोपैथिक औषधियों के मानकों का निर्धारण करने की आधिकारिक पुस्तक है। भारतीय फार्माकोपिया (HPI), होमियोपैथिक फार्माकोपिया समिति द्वारा 1971 में तैयार किया गया था। इसे संकलित करने के दौरान, अमेरिकी होमियोपैथिक फार्माकोपिया, ब्रिटिश होमियोपैथिक फार्माकोपिया और जर्मन होमियोपैथिक फार्माकोपिया का सहारा लिया गया था। हम 1971 के पहले तक अमेरिकी होमियोपैथिक फार्माकोपिया का पालन करते थे। HPI ‘औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम (ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट) -1940’ की दूसरी अनुसूची में शामिल है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा इसके दवाओं के मानक से युक्त छह खंड पहले ही प्रकाशित किए जा चुके हैं। नित नवीन औषधियों की खोज के साथ ही इसमें आज भी नए खंड जोड़े जाते हैं। वर्त्तमान में इसमें दस खंड हैं। इस उद्देश्य के लिए, समिति में रसायन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान और फार्माकोलॉजी शाखाओं के विशेषज्ञों के अलावा दवाओं के निर्माताओं और होमियोपैथिक चिकित्सकों के साथ-साथ अधिकारी भी शामिल होते हैं जो दवाओं में परीक्षण और अनुसंधान के काम से संबंधित हैं। आयुष मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत होमियोपैथिक फार्माकोपिया प्रयोगशाला (HPL) गाजियाबाद में स्थित है जिसकी स्थापना 1975 में होमियोपैथिक दवाओं की पहचान, शुद्धता और गुणवत्ता के लिए मानक निर्धारित करने और परीक्षण करने के उद्देश्य से एक राष्ट्रीय प्रयोगशाला के रूप में की गई थी। भारतीय निर्माता भारत के होमियोपैथिक फार्माकोपिया में दिए गए मानकों और पद्धति के अनुसार होमियोपैथिक दवाओं का निर्माण करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य हैं।
गौरतलब है कि यह आधिकारिक होमियोपैथिक फार्माकोपिया भारत का पहला होमियोपैथिक फार्माकोपिया नहीं था। दरअसल भारत में पहला होमियोपैथिक फार्माकोपिया 1893 में एम. भट्टाचार्य एंड कंपनी, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित किया गया था, जिसका नाम "फार्मास्यूटिक्स मैनुअल" (Pharmaceutics Manual) था। किन्तु इसे कभी आधिकारिक होमियोपैथिक फार्माकोपिया का दर्जा नहीं मिला। 1893 से इसके बारह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। 1944 में प्रकाशित दसवें संस्करण में लगभग 70 महत्वपूर्ण भारतीय औषधियाँ शामिल थीं।
डॉ. के.जी. सक्सेना (1912-2003) और आई.आई.एच.पी.
डॉ. कृष्ण गोपाल सक्सेना का जन्म 25 सितंबर 1912 को पुरानी दिल्ली में उनके पैतृक घर में हुआ था। वे कलकत्ता होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेज से स्नातक थे। डॉ. के. जी. सक्सेना पहले ऐसे होमियोपैथिक चिकित्सक बने जिन्हें भारत के राष्ट्रपति (डॉ. राजेंद्र प्रसाद) का मानद चिकित्सक नियुक्त किया गया हो। वह 1986 तक इस पद पर बने रहे। इन वर्षों में उन्होंने राष्ट्रपतियों, उपराष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों तथा उनके परिवारवालों का होमियोपैथी से उपचार किया जिनमें डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. जाकिर हुसैन, मौलाना आज़ाद, लाल बहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गांधी, जय प्रकाश नारायण और राजीव गांधी जैसे कई अन्य प्रख्यात राष्ट्रीय नेता शामिल हैं। उन्होंने 1962 से 1971 तक भारत सरकार के पहले मानद सलाहकार (होमियोपैथी) के रूप में भी काम किया और 1937 से होमियोपैथी की मान्यता और उन्नति के लिए अथक प्रयास किए।
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होमियोपैथी के विकास और विस्तार के लिए डॉ. के.जी. सक्सेना को होमियोपैथिक सलाहकार समिति (Honorary Advisor for Homeopathic Committee) का अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने होमियोपैथिक शिक्षा समिति (Homeopathic Education Committee), होमियोपैथिक अनुसंधान समिति (Homeopathic Research Committee), ग्रामीण होमियोपैथिक सहायता समिति (Rural Homeopathic Aid Committee), परिवार नियोजन समिति (Family Planning Committee), वैज्ञानिक सलाहकार बोर्ड (Scientific Advisory Board) और केंद्रीय होमियोपैथी अनुसंधान परिषद (Central Council for Research in Homeopathy) जैसी राष्ट्रीय समितियों के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया। उन्होंने 18 राष्ट्रीय होमियोपैथिक कांग्रेस की अध्यक्षता की। वे इंटरनेशनल होमियोपैथिक मेडिकल लीग कांग्रेस - लंदन (1965), एथेंस (1969), तथा वाशिंगटन (1987) में विशेष आमंत्रित सदस्य थे। वे भारत में इंटरनेशनल होमियोपैथिक मेडिकल लीग (Liga Medicorum Homoeopathica Internationalis - LMHI) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे।
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होमियोपैथी को उचित आधिकारिक मान्यता दिलाने के लिए संस्थागत रूप से प्रशिक्षित होमियोपैथिक चिकित्सकों के एक समूह ने वर्ष 1944 में एक अखिल भारतीय संगठन बनाने का निर्णय लिया। उन्होंने इसे “अखिल भारतीय होमियोपैथी संस्थान” (AIIH) कहा, जिसे बाद में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ होमियोपैथिक फिजिशियन्स (IIHP) में बदल दिया गया। इस तरह डॉ. एम. गुरुराजू, डॉ. ए.एन. मुखर्जी, डॉ. दीवान जयचंद, डॉ. दया शंकर, डॉ. जे.पी. श्रीवास्तव और डॉ. एस.पी. अस्थाना जैसे दिग्गज समर्पित लोगों की एक टीम के साथ मिलकर डॉ. के.जी. सक्सेना ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ होमियोपैथिक फिजिशियन्स (IIHP) की स्थापना में अहम् भूमिका निभाई थी। डॉ. के.जी. सक्सेना इसके सचिव तथा बाद में आजीवन इसके मानद अध्यक्ष (President of Honour) बने रहे। उन्होंने IIHP की वैज्ञानिक और आधिकारिक पत्रिका "द रेशनल फिसिशिन्स" के संपादक का पद भी संभाला था। विदित हो कि IIHP आज भी संस्थागत रूप से राष्ट्रव्यापी उपस्थिति के साथ योग्य होमियोपैथ्स का सबसे बड़ा संगठन है तथा "द रेशनल फिसिशिन्स" होमियोपैथी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में से एक है।
उनकी बहुचर्चित पुस्तक "Struggle for Homeopathy in India" को 1993 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा जारी किया गया था। होमियोपैथी के प्रति उनकी निस्वार्थ सेवाओं के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। होमियोपैथी के विकास में उनके शानदार योगदान के लिए उन्हें एन.सी. चक्रवर्ती मेमोरियल कमेटी द्वारा कलकत्ता में राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। अंतर्राष्ट्रीय होमियोपैथी कांग्रेस, नई दिल्ली ने उन्हें 1967 में और फिर 1989 में कलकत्ता में "प्रेसिडेंट ऑफ ऑनर" से सम्मानित किया। उनकी प्रसिद्धि और योगदान की स्मृति में 2019 में डाक विभाग द्वारा उन पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया है। होमियोपैथी के क्षेत्र में उनकी लंबी और विशिष्ट सेवाओं के सम्मान में भारत में अब उनका जन्मदिन 25 सितंबर - "होमियोपैथी विकास दिवस" के रूप में मनाया जाता है। 23 अक्टूबर, 2003 को उनके निधन ने वास्तव में भारत में होमियोपैथी के क्षेत्र में एक ऐसी शून्यता को छोड़ दिया है जिसे कभी नहीं भरा जा सकता।
केंद्रीय होमियोपैथी परिषद (C.C.H.) तथा केंद्रीय होमियोपैथी अनुसंधान परिषद (C.C.R.H.)
आज़ादी के पहले से ही होमियोपैथी को वैधानिक किये जाने के प्रयास जारी थे। वर्ष 1937 में निर्णायक मोड़ उस समय आया, जब केन्द्रीय विधान सभा ने यह संकल्प पारित किया कि “यह विधानसभा, परिषद में गवर्नर जनरल को यह सिफारिश करती है कि वह कृपया भारत के सरकारी अस्पतालों में होमियोपैथिक उपचार आरम्भ करें और भारत में होमियोपैथिक कॉलेजों को वही दर्जा और मान्यता दें, जो एलोपैथिक कॉलेजों के मामले में दी जाती है”। बाद में, वर्ष 1948 में, उसी विधानसभा ने होमियोपैथी के बारे में एक और संकल्प अंगीकार किया, जिसके पश्चात, होमियोपैथिक जांच समिति (Homeopathic Inquiry Committee) गठित की गयी। वर्ष 1949 में, इस जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें यह सिफारिश की गयी कि केन्द्रीय होमियोपैथिक परिषद का गठन किया जाना चाहिए। वर्ष 1952 में एक होमियोपैथिक तदर्थ समिति (Homeopathic Ad Hoc Committee) जिसे 1954 में 'होमियोपैथिक सलाहकार समिति' (Homeopathic Advisory Committee) का नाम दिया गया; गठित की गयी, जिसका कार्य होमियोपैथी से सम्बंधित सभी मामलों (अर्थात् होमियोपैथिक शिक्षा, होमियोपैथिक अनुसंधान, प्रैक्टिस के विनियमन, औषध-कोष, ग्रामीण चिकित्सा सहायता, औषधि-विनिर्माण, परिवार नियोजन, होमियोपैथिक कॉलेजों, औषधालयों, अस्पतालों को वित्तीय सहायता और अंतर्राष्ट्रीय होमियोपैथिक चिकित्सा संघ के साथ सहयोग, आदि) पर सरकार को सलाह देना था। डॉ. के.जी. सक्सेना इस समिति के अध्यक्ष थे।
होमियोपैथी में कुछ अग्रणी राज्यों के विकासोन्मुख दृष्टिकोण ने अन्य राज्यों को भी होमियोपैथी अधिनियम बनाने के लिए प्रेरित किया। स्वतंत्रता के बाद, विभिन्न राज्यों में होमियोपैथी अधिनियम लागू किए गए। 1967 में एक विधेयक पर चर्चा हुई और सरकार ने केंद्रीय परिषद की स्थापना पर विचार के लिए 36 संसदीय सदस्यों की एक समिति गठित करने का निर्णय लिया। जिसके अंतर्गत केंद्र सरकार ने होमियोपैथी विज्ञान के विकास में तेजी लाने तथा पूरे भारत में होमियोपैथिक शिक्षा में समानता और एकरूपता सुनिश्चित करने और प्रैक्टिस को विनियमित करने के उद्देश्य से वर्ष 1973 में, होमियोपैथी केन्द्रीय परिषद अधिनियम पारित किया। और इस प्रकार दिसंबर 1974 में भारत सरकार की ओर से तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. करण सिंह ने, केंद्रीय होमियोपैथी परिषद (Central Council of Homeopathy) का गठन किया था। बाद में, तत्कालीन होमियोपैथी के सलाहकार माननीय डॉ. के.जी.सक्सेना की सलाह पर, केंद्र सरकार ने होमियोपैथी में अनुसंधान के लिए एक अलग अनुसंधान संस्थान बनाने का निर्णय लिया और इस प्रकार 30 मार्च, 1978 को केंद्रीय होमियोपैथी अनुसंधान परिषद (Central Council for Research in Homeopathy) की स्थापना की गई।
राष्ट्रीय होमियोपैथी आयोग (NCH) और आयुष मंत्रालय (Ministry of AYUSH)
वर्ष 1995 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार ने ISM&H (The Indian Systems of Medicine and Homeopathy) के रूप में अलग विभाग बनाकर होमियोपैथी के साथ-साथ भारत की अन्य सभी चिकित्सा प्रणालियों को एक अलग पहचान दी तथा होमियोपैथी को चिकित्सा की राष्ट्रीय प्रणालियों में से एक के रूप में मान्यता दी। नवंबर, 2003 में इस विभाग का नाम बदलकर आयुष (A=आयुर्वेद, Y=योग और प्राकृतिक चिकित्सा, U=यूनानी, S=सिद्ध और H=होमियोपैथी) कर दिया गया। बाद में 9 नवंबर 2014 में चिकित्सा की इन वैकल्पिक धाराओं के विकास के लिए एक अलग मंत्रालय बनाया गया जिसे आयुष मंत्रालय (Ministry of AYUSH) कहा गया।
वर्ष 2020 में राष्ट्रीय होमियोपैथी आयोग अधिनियम 2020 के द्वारा केंद्रीय होमियोपैथी परिषद को भंग कर दिया गया तथा इसके स्थान पर राष्ट्रीय होमियोपैथी आयोग (National Commission for Homeopathy - NCH) का गठन किया गया है, जो राजपत्र अधिसूचना द्वारा 05.07.2021 को लागू हुआ है।
भारत में होमियोपैथी तेजी से फलफूल रही है और अनुमान है कि हर साल इसकी कीमत 6·3 अरब रुपए (165 मिलियन डॉलर) से अधिक है। होमियोपैथी बाजार प्रति वर्ष 25% की दर से बढ़ रहा है और एक दशक के भीतर निजी होमियोपैथी पर खर्च लगभग 60 अरब रुपये (1555 मिलियन डॉलर) हो जाएगा।
भारत में एलोपैथी और आयुर्वेद के बाद होमियोपैथी, चिकित्सा उपचार की तीसरी सबसे लोकप्रिय पद्धति है। वर्तमान में होम्योपैथिक चिकित्सा प्रणाली को पढ़ाने और बढ़ावा देने के लिए देश में 200 से ज़्यादा होमियोपैथी के मेडिकल कॉलेज हैं, जिनमें 38 स्नातकोत्तर कॉलेज भी शामिल हैं। भारत में केवल पंजीकृत होमियोपैथ्स ही होमियोपैथी का अभ्यास कर सकते हैं। वर्तमान में भारत में ढाई लाख से भी अधिक पंजीकृत होमियोपैथिक डॉक्टर हैं, और हर साल लगभग 12,000 से अधिक डॉक्टर इस सूची में जुड़ जाते हैं। निश्चित ही होमियोपैथी के स्वर्णिम इतिहास की तरह भारत में होमियोपैथी का भविष्य भी स्वर्णिम ही होगा।
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