भारत में कोरोना की दूसरी लहर के सिमटते-सिमटते, विदेशों में तीसरी लहर की आहट हो चली है। हमारे देश में कोरोना की दूसरी लहर ने जिस भयावह और अप्रत्याशित रूप से लोगों की जान ली, और फिर इस पर योगगुरू स्वामी रामदेव और आई.एम.ए. के बीच अपनी-अपनी पद्धति को लेकर हुए विवाद ने एक राष्ट्रव्यापी बहस छेड़ दी कि कौन-सी पद्धति श्रेष्ठ है, इस सबसे तमाम बुनियादी सबक सीखने को मिले हैं।
प्रश्न यह भी है कि वर्चस्व की इस लड़ाई में होमियोपैथी किसकी ओर है तथा उसका क्या नज़रिया है? निश्चित ही यह होमियोपैथिक जगत के लिए आत्म-मंथन का समय है और हमें पहले यह जान लेना चाहिए कि आज भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली में हम खड़े कहाँ हैं?
लोगों ने कोविड-19 के प्रारंभ होते ही बड़ी संख्या में होमियोपैथी को अपनाना प्रारंभ कर दिया था किन्तु सरकार की ओर से कोई विशेष सहयोग या प्रोत्साहन नहीं मिला। सरकार ने होमियोपैथी के प्रति अपना पुराना रवैया ही अपनाये रखा तथा कोविड-19 को अति गंभीर बीमारी बताकर होमियोपैथी को इससे अलग ही रखने का निर्णय ले लिया। CCRH को मात्र इसकी प्रिवेंटिव के तौर पर अर्सेनिक-एल्ब दिए जाने की छूट मिली। ऐसा क्यों?
यह लोगों पर तो निर्भर करता ही है कि वे किस पद्धति को अपनाएंगे किंतु साथ ही इसमें सरकार और प्रशासन का भी यह कर्तव्य है कि वे सभी विधाओं को आम जनता को उपलब्ध कराएं। ताकि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग भी हर पद्धति के महत्व एवं उपयोगिता से पूरी तरह से अवगत हों। तब तो वे उसके होने का लाभ उठा सकते हैं अन्यथा होमियोपैथी जैसी सरल और अद्भुत विधा केवल कुछेक जानकार लोगों तक ही सीमित रह जाती है। अतः होमियोपैथी को जन-जन तक पहुंचाने के लिए हमें सरकार और शासन / प्रशासन के प्रोत्साहन की सदा आवश्यकता है और रहेगी।
आज हम एलोपैथी की चाहे जितनी बुराई कर लें किंतु इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि स्वयं या फिर परिवार में बीमार पड़ने पर हम भी तो उन्हीं की शरण में जाते हैं। कभी न कभी हम भी तो उसे अपनाते ही हैं। जानते हैं क्यों? क्योंकि हमें वहाँ ज़्यादा उम्मीद नज़र आती है। उन्होंने अपनी प्रगतिशील सोच और काबिलियत के कारण आम जनता में भरोसा जगाया है। हमें यह उनसे सीखना चाहिए।
यह तो होमियोपैथी के प्रथम वर्ष का एक छात्र भी बता देगा कि होमियोपैथिक दवाऐं भी इमरजेंसी में करिश्माई काम करती हैं। किंतु क्या अकेले दवाओं के भरोसे हम किसी इमरजेंसी रोगी को देख सकते हैं? नहीं...हमें दवाओं के अलावा और भी बहुत कुछ चाहिए होता है। क्या हमारे पास है? नहीं तब आज के परिपेक्ष में कैसे हम यह सिद्ध करेंगे कि होमियोपैथिक दवाऐं भी इमरजेंसी में काम करती हैं? हम कबतक अपने स्वर्णिम इतिहास का हवाला देते हुए अपनी पीठ ठोकते रहेंगे?
एक आम आदमी को जो ज़्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है या फिर मेडिकल की कोई जानकारी नहीं रखता है उसे एक अस्पताल पर ज़्यादा भरोसा नज़र आता है क्योंकि वहाँ दस तरह की मशीनरी हैं। हमारे पास क्या है? क्यों कोई भरोसा करे हम पर या हमारी दवाइयों पर? उनकी दवाइयाँ चाहे कम प्रभावी हों या नुकसान देह हों यह एक अलग विषय है किंतु उनका रोग का शुरुआती मैनेजमेंट तो बहुत दमदार है। क्या हमारा है? हमारे पास कोई मैनेजमेंट तो छोड़िये, मैनेजमेंट का प्रोटोकॉल तक दमदार या एकमत नहीं है। तो रोगी हम पर क्यों विश्वास करें? फिर हम कहते हैं कि लोग पहले एलोपैथ के पास क्यों जाते हैं। रोगी हमारे पास हारकर तब आते हैं जब अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ उन्हें असाध्य बता चुकी होती हैं। यह कमी हमारी है।
हम केवल पुरानी बीमारियों में अपने सिस्टम को नहीं सिमटने दे सकते हैं। यदि असल में हम एक होलिस्टि सिस्टम हैं तो अक्यूट में पीछे क्यों रह जाते हैं? शायद इसलिए कि हम में से ज़्यादातर में अक्यूट से डील करने का आत्म-विश्वास नहीं है। और आत्म-विश्वास इसीलिए नहीं है क्योंकि आत्म-विश्वास हवा में नहीं आता है। ये रोगियों की ज़िंदगी है कोई खेल नहीं है जो आत्म-विश्वास के बल पर बचाई जा सके। दरअसल अक्यूट केसज़ को देखने के लिए आत्म-विश्वास की नहीं बल्कि एक्सपर्ट ट्रेनिंग की ज़रूरत होती है। एक्सपर्टस की देखरेख में सालों काम करने के बाद आत्म-विश्वास स्वतः ही आ जाता है।
आज बहुत से मेधावी होमियोपैथिक चिकित्सकों को एलोपैथिक अस्पतालों में कम वेतन में भी बेहतरीन काम करते देखा गया है। इसके पीछे दो मुख्य वजह हैं। एक तो ये कि सबको नौकरी चाहिए तो जहाँ मिली वहाँ कर ली। पैसे आने लगे और आत्म-विश्वास भी बढ़ता गया। दूसरा ये कि इनकी क्लिनिकल ट्रेनिंग एक्सपर्ट के नीचे हो गई (जो कि UG में ही हो जानी चाहिए थी) जिसके कारण भी इनमें आत्म-विश्वास आया है। किंतु इसका एक दूसरा दुखद पहलु यह भी है कि जिस पद्धति के कारण ये स्वयं को डॉक्टर कह पाते हैं, अपने एक्सपर्ट की देखादेखी, ये भी उसी के प्रति हीन भावना रखने लगे हैं। उसके ऊपर तिलभर भी भरोसा नहीं रहा। यह बिलकुल वैसा ही है कि जिस माँ ने जना उसकी उपेक्षा की और जब उसे ज़रूरत है तो उसे छोड़ दिया। निश्चित ही यह दुर्भाग्य है।
ऐसा न हो और इसे रोकने के लिए हमें नविनीकरण की ज़रूरत है। नविनीकरण अपनी पद्धति के सिद्धांतों में नहीं बल्कि नविनीकरण मैनेजमेंट के तरीकों में करना होगा। नविनीकरण अपनी सोच में करना होगा कि आधुनिक वैज्ञानिक संसाधनों, उपकरणों, सामान्य चिकित्सा प्रक्रियाओं और प्रोटोकॉलस को अपनाने में ही हमारी उन्नति निहित है। हमारे पास ट्रीटमेंट यदि अच्छा है तो हमें मैनेजमेंट उनसे सीखना चाहिए।
आज एलोपैथी यदि अग्रणी है तो उसकी इस प्रसिद्धि में एक बड़ा योगदान उसके साथ जुड़ी सहायक स्वास्थ्य सेवाओं (एलाईड मेडिकल सर्विसेज) का भी है। केवल दवाईयां ही काफी नहीं होतीं, प्राथमिक उपचार के रोगी को सतत निगरानी की भी आवश्यकता होती है जिसके लिए हमें पैरामेडिकल स्टाफ चाहिए होता है। बिना सहायक स्वास्थ्यकर्मियों के हम कैसे होमियोपैथी को मुख्य धारा में जोड़ सकेंगे तथा प्रमाणिकता के साथ आम जनता का भला कर सकेंगे?
इसके लिए हमें दीर्घकालिक और मानक रणनीति की आवश्यकता है जो तीन स्तर पर कार्य करे:
1. होमियोपैथिक अस्पतालों का निर्माण हो:
आज ज़रूरत है कि होमियोपैथी के अस्पताल हों और उनमें भी सर्जरी और इमर्जेंसी ट्रीटमेंट किया जाता हो। विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक उपकरणों के प्रयोग का अधिकार सभी पद्धति के छात्रों को देना चाहिए। साथ ही हमें भी सहायक स्वास्थकर्मी का योगदान मिले। इसके लिए जो भी चीजों को शामिल करने की ज़रूरत पड़े तो उन्हें करना चाहिए। एनेस्थीसिया, पेन-किलर्स, इंट्रावेनस ट्रांसफ्यूज़न, ब्लड ट्रांसफ्यूज़न, ओक्सीज़न इंफ्यूज़न, राईल्स ट्यूब फीडिंग, टैपिंग, अम्बु, आदि यह कोई पद्धति नहीं वरन जनरल-मैेज़र्स हैं....! एक बेसिक मैनेजमेंट का हिस्सा हैं फिर यह सब किसी पैथी का पर्याय कैसे बन गये? एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड, आदि जाँच के विभिन्न तरीकों पर किसी एक पद्धति का एकाधिकार करना क्या उचित है? हमने स्वयं को इनसे इतना दूर कर लिया है और उन्होंने इसको इतना आत्मसात कर लिया है कि आज विज्ञान की सभी खोजों पर उनका एकाधिकार हो गया है और आम जनता भी हमें इनसे अछुता समझने लगी है।
कुछ लोगों के अनुसार यह खिचड़ी है। यह खिचड़ी नहीं वरन यही उपाय है स्वयं को एक होलिस्टि और संपूर्ण विज्ञान के रूप में सिद्ध करने का। यह यदि अभी नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब हम चिकित्सक कहलाने योग्य नहीं रहेंगे और होमियोपैथी केवल एक दो साल का कोई डिप्लोमा कोर्स होकर रह जाएगी। यदि हम चिकित्सक हैं तो हमें सब विधाओं में पारंगत होना चाहिए।
2. होमियोपैथिक शिक्षा व्यवस्था में सुधार हो:
हमें सभी विधाओं में परास्नातक होने का अवसर मिलना चाहिए, जैसे पैथोलॉजी, रेडियोलॉजी, गायनेकोलॉजी और ओब्सटैट्रिकस्, जनरल सर्जरी, एनिस्थीसिया, आदि। हमें सबकी अनुमति मिले। अन्यथा ये विधायें एलोपैथी का पर्याय बनती जायेंगीं या फिर बन चुकी हैं।
3. होमियोपैथिक औषधियों का गुणवत्ता नियंत्रण हो।
औषधियों का गुणवत्ता नियंत्रण हो तथा फिफ्टी मिलीसिमल औषधियों के अधिक से अधिक उपयोग पर ज़ोर हो।
इन्हीं तीन चीज़ों के लिए विधिवत आवाज़ बुलंद कीजिए। तभी हमारा स्तर समाज और सरकार में उठेगा। अन्यथा हम एक तृस्कृत वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति मात्र ही होकर रह जाएंगे।
हर पद्धति सम्मान योग्य है। हर पद्धति की अपनी विशेषताएं एवं सीमाएं हैं किंतु यह हमारा दायित्व है कि हम उसकी कमियों को दूर करने के लिए प्रयासरत हों। यदि प्राथमिक उपचार में दक्ष, सहायक स्वास्थ्यकर्मी हमारे पास भी उपलब्ध हो जाएं तो हम भी भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेंगे।
कोरोना की तीसरी लहर का संकट सामने खड़ा है। ऐसे में हर पद्धति के महत्व को सामने रखते हुए एवं आवश्यकता अनुसार विकल्प देते हुए यदि सरकार काम करती है तब ही हम भविष्य की उन विकट परिस्थितियों से पार पा सकेंगे। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय में भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली के मूलभूत ढांचे में होमियोपैथी का एक महत्वपूर्ण स्थान होगा और यह पद्धति अपने पूरे कौशल के साथ एक समावेशी धरातल पर अभूतपूर्व काम करेगी।
नोट: यह लेख विभिन्न होमियोपैथिक चिकित्सकों से चर्चा के आधार पर बनाया गया है।
Dr. Sahab puri tarah se sahmat hu apse,agar free words me kahu to dil jeet liya apki baatoi ne,kafi time ke baad homeopathy ke baare me kuch achcha sunne ko mila hai,nhi to yaha sab convert hone hee baithe hai
जवाब देंहटाएंआपका बहुत-बहुत धन्यवाद। यदि विचारों से सहमत हैं तो इस लेख को share करें।
हटाएंThank you so much mam for giving a wonderful knowledge for every homopath
जवाब देंहटाएंआपका बहुत-बहुत धन्यवाद। यदि विचारों से सहमत हैं तो इस लेख को share करें।
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