अप्रैल 2021 का यह पिछला महीना कोविड महामारी का सबसे विनाशकारी महीना रहा है। अप्रैल की शुरुआत में, भारत में एक दिन में एक लाख से भी कम मामले आ रहे थे किंतु महीने के अंत तक यह आंकडा लगभग 4 लाख प्रतिदिन पर पहुंच गया। यह आपातकाल की स्थिति है और निश्चित रूप से परिदृश्य निराशाजनक है। एक चिकित्सक के रूप में, अस्पताल के बाहर हजारों लोगों को एक उचित उपचार के अभाव में मरते हुए देखना हमारे लिए आसान नहीं है।

कोविड रोगियों का उपचार करने वाले तमाम अस्पतालों के बाहर बोर्ड टांग दिए गए हैं कि वे खाली बेड और ऑक्सीजन की आपूर्ति के गंभीर संकट से झूझ रहे हैं जिसके कारण वे अन्य किसी को भर्ती करने में असमर्थ हैं। आप किसी स्वास्थ्यकर्मी से पूछेंगे तो वो आपको बताएंगे कि जमीनी स्तर पर समस्या कितनी विकट है। पिछले कुछ दिनों से एक दिन भी ऐसा नहीं बीतता कि जब किसी दूर के रिश्तेदार के निधन का समचार नहीं मिलता हो अथवा मेरे या मेरे पिता के पास मदद के लिए कोई संपर्क नहीं करता हो।

जीवन नष्ट हो रहा है। आजीविका नष्ट हो रही है। सरकार के प्रयास उन कालाबाजारी करने वालों या मुनाफाखोरों पर भी पूरी तरह से लगाम लगाने में नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं जो इस संकट के समय में भी मास्क, सैनिटाइटर, दवाइओं तथा अन्य ज़रूरी वस्तुओं को कई गुना में बेचने के साथ ही अपना ज़मीर भी बेचने पर आमादा हैं। अस्पतालों द्वारा ली जाने वाली बड़ी राशि उन लोगों के मर्म को और बढ़ा रही है जिन्होंने सब कुछ करने के बाद भी अपनों को खो दिया है।

भारत में बड़े पैमाने पर गरीबी वापस आ गई है क्योंकि महामारी से प्रेरित मंदी के कारण गरीबों की संख्या 6 करोड़ से बढ़कर 13.4 करोड़ हो गई है। आर्थिक संकट तो अभी चरम पर जाना बाकी है। कोई आश्चर्य नहीं कि हम कोरोना की इस दूसरी लहर को नियंत्रित करने में बुरी तरह विफल रहे हैं। लोगों को दोष दें, धर्मों को दोष दें, राज्य सरकारों को दोष दें, पार्टियों या राजनेताओं को दोष दें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी पर आरोप लगाने का कोई मतलब नहीं है। यह एक सामूहिक विफलता है।